संचार क्रांति के इस दौर में खास तौर पर महानगरों में ऐसी धारणा बनती जा रही है कि अब चिट्ठियों का कोई महत्व नहीं रहा। उनको मोबाइल फोनों, यातायात के तेज साधनो, इंटरनेट और तमाम अन्य माध्यमो ने बुरी तरह प्रभावित किया है। पर इतने सारे बदलाव के बाद भी चिट्ठियों का जादू खास तौर पर देहाती इलाकों में कायम है और डाकखानो के द्वारा रोज भारत में साढे चार करोड चिट्ठियां भेजी जा रही हैं। भारतीय सैनिकों के बीच रोज सात लाख से अधिक चिट्ठियां बांटी जा रही हैं और आज भी देश के तमाम दुर्गम गावों में डाकिए का उसी बेसब्री से इंतजार किया जाता है जैसा दशको पहले किया जाता था।
संचार क्रांति के क्षेत्र में भी शहर और देहात के बीच भारी विषमता गहरा रही है। देश में हर माह 70 लाख से एक करोड के बीच में फोन लग रहे हैं फिर भी देहाती इलाकों की तस्वीर बहुत धुंधली है। देहाती फोनो का जिम्मा आज भी सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनी बीएसएनएल ने ही संभाला है और निजी कंपनियां इन इलाकों में जाने से कतरा रही हैं। भले ही 28 करोड से अधिक फोनो के साथ भारत का दूरसंचार नेटवर्क दुनिया का तीसरा और एशिया का दूसरा सबसे बडा नेटवर्क बन गया है। पर दहातीं दूरसंचार घनत्व अभी 9 फीसदी भी नहीं हो पायाहै। अगर ग्यारहवीं योजना के अंत तक की गयी परिकल्पना के अनुसार ग्रामीण दूरसंचार घनत्व बीस करोड फोनो के साथ 25 फीसदी हो जाता है तो भी भारत में देहात के 100 में 75 लोगों के पास फोन नहीं होंगे।
पत्रों के आधार पर ही तमाम भाषाओं में जाने कितनी किताबें लिखी जा चुकी हैं और राजनेताओं के पत्रों ने विवादों की नयी विरासत भी लिखी। पत्र व्यवहार की परंपरा भारत में बहुत पुरानी है। माध्यम डाकिया रहा हो या हंस ,हरकारा रहा हो या फिर कबूतर पर पत्र लगातार पंख लगाकर उडते रहे हैं। नल -दमयती के बीच पत्राचार हंस के माध्यम से होता था तो रूक्मिणी का पत्र श्रीकृष्ण को विपृ के माध्यम से मिलता था। माक्र्स और एंजिल्स के बीच ऐतिहासिक मित्रता का सूत्र पत्र ही थे। इसी तरह रवींद्र नाथ टैगोर ने दीन बंधु एंड्रूज को जो पत्र लिखा था वह लेटर टू ए फ्रेंड नाम से एक किताब का आकार लेने में सफल रही
दुनिया का सबसे पुराना ज्ञात पत्र 2009 ईसा पूर्व के कालखंड का सुमेर का माना जाता है। मिट्टी की पटरी पर यह पत्र लिखा गया था। मनुष्य की विकास यात्रा के साथ पत्रों का सिलसिला भी शुरू हुआ और आदिवासी कबीलों ने संकेतो से संदेश की परंपरा शुरू की। लिपि के आविष्कार के बाद पत्थरों से लेकर पत्ते पत्रों को भेजने का साधन बने। लेखन साधनो तथा डाक प्रणाली के व्यवस्थित विकास के बाद पत्रों को पंख लगे । अगर तलाश करें तो आपको ऐसा कोई नहीं मिलेगा जिसने कभी किसी को पत्र न लिखा या न लिखाया हो या पत्रों का बेसब्री से जिसने इंतजार न किया हो। भारत में सीमाओं और दुर्गम इलाकों में तैनात हमारे सैनिक तो पत्रों का बहुत आतुरता से इंतजार करते हैं। संचार के और साधन उनको पत्रों सा संतोष नहीं दे पाते हैं। एक दौर वह भी था जब लोग पत्रों का महीनो इंतजार करते थे.पर अब वह बात नहीं।
भारतीय डाक तंत्र ने नीति निर्माताओं की तमाम उपेक्षा के बाद भी खास तौर पर देहाती और दुर्गम इलाकों में पत्र भेजने के साथ साक्षरता अभियान तथा समाचारपत्रों को ऐतिहासिक मदद की पहुंचायी है। रेडियो के विकास में भी डाक विभाग का अहम योगदान रहा है। मनीआर्डर, डाक जीवन बीमा तथा डाकघर बचत बैंक खुद में बडी संस्था का रूप ले चुके हैं। यही नहीं कम ही लोग जानते हैं कि नोबुल पुरस्कार विजेता सीवी रमण, मुंशी प्रेमचंद, अक्कीलन, राजिंदर सिंह बेदी, देवानंद, नीरद सी चौधरी, महाश्वेता देवी से लेकर कृष्णविहारी नूर डाक विभाग में कर्मचारी या अधिकारी रहे हैं।
संचार क्रांति के क्षेत्र में भी शहर और देहात के बीच भारी विषमता गहरा रही है। देश में हर माह 70 लाख से एक करोड के बीच में फोन लग रहे हैं फिर भी देहाती इलाकों की तस्वीर बहुत धुंधली है। देहाती फोनो का जिम्मा आज भी सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनी बीएसएनएल ने ही संभाला है और निजी कंपनियां इन इलाकों में जाने से कतरा रही हैं। भले ही 28 करोड से अधिक फोनो के साथ भारत का दूरसंचार नेटवर्क दुनिया का तीसरा और एशिया का दूसरा सबसे बडा नेटवर्क बन गया है। पर दहातीं दूरसंचार घनत्व अभी 9 फीसदी भी नहीं हो पायाहै। अगर ग्यारहवीं योजना के अंत तक की गयी परिकल्पना के अनुसार ग्रामीण दूरसंचार घनत्व बीस करोड फोनो के साथ 25 फीसदी हो जाता है तो भी भारत में देहात के 100 में 75 लोगों के पास फोन नहीं होंगे।
पत्रों के आधार पर ही तमाम भाषाओं में जाने कितनी किताबें लिखी जा चुकी हैं और राजनेताओं के पत्रों ने विवादों की नयी विरासत भी लिखी। पत्र व्यवहार की परंपरा भारत में बहुत पुरानी है। माध्यम डाकिया रहा हो या हंस ,हरकारा रहा हो या फिर कबूतर पर पत्र लगातार पंख लगाकर उडते रहे हैं। नल -दमयती के बीच पत्राचार हंस के माध्यम से होता था तो रूक्मिणी का पत्र श्रीकृष्ण को विपृ के माध्यम से मिलता था। माक्र्स और एंजिल्स के बीच ऐतिहासिक मित्रता का सूत्र पत्र ही थे। इसी तरह रवींद्र नाथ टैगोर ने दीन बंधु एंड्रूज को जो पत्र लिखा था वह लेटर टू ए फ्रेंड नाम से एक किताब का आकार लेने में सफल रही
दुनिया का सबसे पुराना ज्ञात पत्र 2009 ईसा पूर्व के कालखंड का सुमेर का माना जाता है। मिट्टी की पटरी पर यह पत्र लिखा गया था। मनुष्य की विकास यात्रा के साथ पत्रों का सिलसिला भी शुरू हुआ और आदिवासी कबीलों ने संकेतो से संदेश की परंपरा शुरू की। लिपि के आविष्कार के बाद पत्थरों से लेकर पत्ते पत्रों को भेजने का साधन बने। लेखन साधनो तथा डाक प्रणाली के व्यवस्थित विकास के बाद पत्रों को पंख लगे । अगर तलाश करें तो आपको ऐसा कोई नहीं मिलेगा जिसने कभी किसी को पत्र न लिखा या न लिखाया हो या पत्रों का बेसब्री से जिसने इंतजार न किया हो। भारत में सीमाओं और दुर्गम इलाकों में तैनात हमारे सैनिक तो पत्रों का बहुत आतुरता से इंतजार करते हैं। संचार के और साधन उनको पत्रों सा संतोष नहीं दे पाते हैं। एक दौर वह भी था जब लोग पत्रों का महीनो इंतजार करते थे.पर अब वह बात नहीं।
भारतीय डाक तंत्र ने नीति निर्माताओं की तमाम उपेक्षा के बाद भी खास तौर पर देहाती और दुर्गम इलाकों में पत्र भेजने के साथ साक्षरता अभियान तथा समाचारपत्रों को ऐतिहासिक मदद की पहुंचायी है। रेडियो के विकास में भी डाक विभाग का अहम योगदान रहा है। मनीआर्डर, डाक जीवन बीमा तथा डाकघर बचत बैंक खुद में बडी संस्था का रूप ले चुके हैं। यही नहीं कम ही लोग जानते हैं कि नोबुल पुरस्कार विजेता सीवी रमण, मुंशी प्रेमचंद, अक्कीलन, राजिंदर सिंह बेदी, देवानंद, नीरद सी चौधरी, महाश्वेता देवी से लेकर कृष्णविहारी नूर डाक विभाग में कर्मचारी या अधिकारी रहे हैं।