बेटियों को बेटों से हीन समझने वाली रूढ़ीवादी सोच को युवा ही बदल सकते हैं, बेटी को बोझ मानने की मानसिकता को बदला जाए और बेटी के जन्म पर भी ख़ुशी का इज़हार किया जाए
कुछ आंखें नम भी हैं. खास तौर पर बुज़ुर्ग महिलाओं की, जिनकी ज़िन्दगी का सच कुछ और ही रहा है
गांव के घर में क़दम रखा तो थाली को चम्मच से बजाने की आवाज़ आई.
सत्यवान की बेटी हुई है और उनकी मां थाली बजा कर इसकी मुनादी कर रहीं हैं.
घर का आंगन खचाखच भरा है, बच्चे, बूढ़े, जवान, पूरा गांव जुटा है.
फिर ख़ास पीली और लाल रंगों की चुनरी ओढ़े सत्यवान की पत्नी, मुन्नी अपने कमरे से बाहर आईं और अपनी बेटी दिव्या को गोद में ले लियाइस गांव में रहने वाले जाट समुदाय में बेटे के जन्म पर मां को डेढ़ महीने तक घर में आराम करने दिया जाता है लेकिन बेटी के जन्म पर दूसरे दिन ही घर के काम पर लगना पड़ता है.
पर दिव्या के जन्म के बाद उसकी मां को तीन हफ्ते तक आराम करने दिया गया.
दिव्या की बुआ के बाद इस परिवार में 36 साल बाद फिर बेटी हुई है. गांव की सभी महिलाएं अपना मुंह ढांपें ये सब देख रही हैं. लेकिन उनकी आंखों में हैरत और अविश्वास साफ़ झलक रहा है.कुछ आंखें नम भी हैं. खास तौर पर बुज़ुर्ग महिलाओं की, जिनकी ज़िन्दगी का सच कुछ और ही रहा है
शुरू करती हैं, तो कुछ उनपर थिरकना.
22 साल की मोनिका बहुत झूम के नाचती है, मानो जश्न उसके पैदा होने पर मनाया जा रहा हो. मोनिका कॉलेज में है और एम.ए. कर रही है.
मोनिका भी कुछ ऐसा करने वाली है जो यहां कभी नहीं हुआ. अगले महीने उसकी शादी है. अपनी शादी पर वो सात की जगह आठ फेरे लेगी.
आठवें फेरे में वो अपने पति के साथ वचन लेगी कि कभी भी गर्भ में लिंग जांच करवा बेटी को नहीं मारेंगे
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