चिर परिचित परम्परागत रूप में हिंदी सेमिनार,संगोष्ठियाँ ,वक्तव्य ,भाषण प्रतियोगिताओं का आयोजन करते हुए,परस्पर बधाई देते हुए प्रतिवर्ष यही क्रम दोहराते है और दोहराते रहेगे , इसी रूप में । इससे अधिक कुछ और नया करने की स्थिति में हम हैं नहीं क्योंकि हमारी इच्छाशक्ति नहीं है ।अभी हम बात कर रहे हैं हिंदी की, कुछ ही क्षण बाद अपने बच्चों को सिखायेंगें “ग्रेंड पा “” मौम ” “डैड ” राईस, मून मामा,ब्रो, सिस ……………………ऐसे में कैसे आशा कर सकते हैं कि हमारी भाषा हिंदी अपना सम्मान प्राप्त करेगी ।
मै नहीं कहूंगा कि हमारा विकास नहीं हुआ परन्तु शायद विकास की इससे कई अधिक सीढियां हम चढ़ चुके होते यदि हमारी भाषा एकमत से हमारी अपनी भाषा हिंदी होती ।ये बात मैं केवल किसी भावनावश नहीं कह रहा हूँ यथार्थ तो ये है कि अपनी भाषा में जितनी शीघ्रता से हम सीख या समझ सकते हैं ,उससे कई गुना अधिक समय दूसरी भाषा में सीखने में लगता है।जो भाषा हम जन्म के समय से सुन रहे हैं ,सीख रहे हैं उससे भिन्न भाषा चाहे वह कोई भी हो उस भाषा के माध्यम से कुछ भी सीखने में समय अधिक लगेगा.अतः विकास में हम पिछड़ेंगे या ये कहिये की पीछे है। मार्क टली ने एक बार कहा की अंग्रेजी राज समाप्त होने पर भी अंग्रेजी भाषा राजकार्य में यहाँ विद्यमान है और कोई भी वहां अपनी भाषा में बात नहीं करता क्योंकि वहां राष्ट्र भाषा का अस्तित्व वास्तव में नहीं है। अन्य सभी देशों के प्रतिनिधि आमजन यदि कहीं जाते हैं तो अपनी भाषा में बात करते हैं परन्तु भारत में ऐसा नहीं है.और इसके दुष्परिणाम भारत को दीर्घकाल तक भुगतने पड़ेंगें।
हमारे जन प्रतिनिधि, आमजन सिद्धांत में भले ही कहते हों कि हमारी भाषा हिंदी है परन्तु व्यवहार में अंग्रेजी ही उनकी माई बाप है।जो बिल्कुल भी अंग्रेजी नहीं जानता बस वही हिंदी में बोलता है अन्यथा तो अंग्रेजी में बोलना स्टेटस सिम्बल बना हुआ है ।“बांटो और राज करो” की नीति पर चलते हुए दक्षिण भारत में हिंदी विरोध को इतनि हवा प्रदान कि, कि हिंदी को वहां अछूत बना दी गयी और आज स्थिति ये है कि कोई भी राजनैतिक दल सत्ता में आ जाय अपनी गद्दी की चिंता में हिंदी को वहां सम्मान प्रदान कराने का साहस नहीं करेगा ।अच्छा होगा दक्षिण भारत व अन्य राज्यों में हिंदी के प्रति कटुता दूर करने के लिए ऐसी योजना बनाई जा सके जिससे उन भाषाओं के प्रति उत्तर भारतीयों की भी रूचि जागृत होऔर वो हिंदी सीखना अपना उत्तरदायित्व समझें..और उत्पन्न विद्वेष को दूर किया जा सके ।
मै नहीं कहूंगा कि हमारा विकास नहीं हुआ परन्तु शायद विकास की इससे कई अधिक सीढियां हम चढ़ चुके होते यदि हमारी भाषा एकमत से हमारी अपनी भाषा हिंदी होती ।ये बात मैं केवल किसी भावनावश नहीं कह रहा हूँ यथार्थ तो ये है कि अपनी भाषा में जितनी शीघ्रता से हम सीख या समझ सकते हैं ,उससे कई गुना अधिक समय दूसरी भाषा में सीखने में लगता है।जो भाषा हम जन्म के समय से सुन रहे हैं ,सीख रहे हैं उससे भिन्न भाषा चाहे वह कोई भी हो उस भाषा के माध्यम से कुछ भी सीखने में समय अधिक लगेगा.अतः विकास में हम पिछड़ेंगे या ये कहिये की पीछे है। मार्क टली ने एक बार कहा की अंग्रेजी राज समाप्त होने पर भी अंग्रेजी भाषा राजकार्य में यहाँ विद्यमान है और कोई भी वहां अपनी भाषा में बात नहीं करता क्योंकि वहां राष्ट्र भाषा का अस्तित्व वास्तव में नहीं है। अन्य सभी देशों के प्रतिनिधि आमजन यदि कहीं जाते हैं तो अपनी भाषा में बात करते हैं परन्तु भारत में ऐसा नहीं है.और इसके दुष्परिणाम भारत को दीर्घकाल तक भुगतने पड़ेंगें।
हमारे जन प्रतिनिधि, आमजन सिद्धांत में भले ही कहते हों कि हमारी भाषा हिंदी है परन्तु व्यवहार में अंग्रेजी ही उनकी माई बाप है।जो बिल्कुल भी अंग्रेजी नहीं जानता बस वही हिंदी में बोलता है अन्यथा तो अंग्रेजी में बोलना स्टेटस सिम्बल बना हुआ है ।“बांटो और राज करो” की नीति पर चलते हुए दक्षिण भारत में हिंदी विरोध को इतनि हवा प्रदान कि, कि हिंदी को वहां अछूत बना दी गयी और आज स्थिति ये है कि कोई भी राजनैतिक दल सत्ता में आ जाय अपनी गद्दी की चिंता में हिंदी को वहां सम्मान प्रदान कराने का साहस नहीं करेगा ।अच्छा होगा दक्षिण भारत व अन्य राज्यों में हिंदी के प्रति कटुता दूर करने के लिए ऐसी योजना बनाई जा सके जिससे उन भाषाओं के प्रति उत्तर भारतीयों की भी रूचि जागृत होऔर वो हिंदी सीखना अपना उत्तरदायित्व समझें..और उत्पन्न विद्वेष को दूर किया जा सके ।
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