Saturday, January 15, 2011

आऊवा का धरना....................यह है इतिहास

आऊवा के धरने की यह इतिहास विश्रुत घटना विक्रमी संवत १६४३ (१५८६ ई.प.) के चैत्र माह के शुक्ल पक्ष की त्रयोदशी के दिन हुई. विक्रमी के इसी वर्ष में उदयसिंह ने गोविन्द बोगसा के ‘सांसण’ का गाँव ‘चारणवाड़ा’ ज़ब्त कर लिया. राजा की नाराज़गी के पीछे की कथा भी बड़ी रोचक है. राजा की माता जोधपुर से द्वारिका की तीर्थयात्रा पर रवाना हुई. बैलों द्वारा खींचे जाने वाले रथों से कारवाँ रवाना हुआ. दुर्योग से रानी माँ के रथ का एक बैल बाड़मेर के सिवान परगने के गाँव चारणवाड़ा की सीमा में मर गया. आसन्न ज़रूरत को देखते हुए रानी माँ के साथ वालों ने इसी गाँव के एक किसान के चलते हल से एक बैल खोला और उसे राजकीय रथ में ला जोता. वह किसान अपनी शिकायत ले कर उस गाँव के स्वामी गोविन्द बोगसा के पास पहुँचा और बलात् अपने बैल खोल ले जाने की घटना बयान की. किसान की शिकायत सुनते ही गोविन्द बोगसा घटना स्थल पर आया और किसान की निशानदेही पर रथ से ज़बरन बैल खोल लिया. नतीजतन रथ उलट गया और राजमाता के हाथ की हड्डी टूट गयी. यात्रा की समाप्ति पर रानी माँ ने अपने पुत्र से पूरे मामले की शिकायत की और कहा कि यह सब तेरे राज्य की सीमा में हुआ है. राजा ने तुंरत गोविन्द बोगसा का गाँव चारणवाड़ा ज़ब्त कर लिया. गोविन्द बोगसा का सोचना यह था कि क्योंकि उसका गाँव ‘सांसण’ श्रेणी का है, अतः राजा सहित किसी की दखल नहीं होनी चाहिए थी ज़बकि राजा के सेवकों ने ज़बरन बैल खोलने की गलती की है, जो उसकी स्वायत्तता का उल्लंघन था. इस पर दूसरे चारण ने जब राजा को समझाने की कोशिश की तो राजा ने उन सभी की जागीर के गाँवों को ज़ब्त करने का आदेश दे दिया. चारण  ने सामूहिक रूप से इस आचरण के विरोध में धरना देने का निश्चय किया पर राजा के विरोध में उसी राज्य में धरना देना उतना आसान नहीं था. …..ऐसे में चारणों ने मारवाड़ छोड़कर मेवाड़ जाने का निश्चय किया.
जब वे मारवाड़ की ओर चले तो मार्ग में पड़े आऊवा गाँव के जागीरदार गोपालदास चांपावत ने इस तरह सामूहिक पलायन कर रहे चारणों को देखकर पूछा कि ‘क्या बात हुई? इस प्रकार कहाँ जाने को निकले हैं?’ प्रत्युत्तर में चारणों ने पूरी घटना सुनकर कहा कि ‘हमारी इच्छा तो पलायन से पहले धरना देने की थी पर धरने की रक्षा करने वाला पूरे मारवाड़ में हमें कोई नहीं मिला.’ इस पर गोपालदास चांपावत ने कहा, ‘यदि यह बात है तो मैं तैयार हूँ. आप मेरे गाँव में धरना दीजिये. अपने आठ पुत्रों सहित मैं अपने प्राणों की बाज़ी लगाकर भी आपके धरने की रक्षा करूंगा.’
ऐसा आश्वासन पाने के बाद चारण ने आऊवा गाँव में सूकड़ी नदी के तट पर बने काजलेश्वर महादेव के मन्दिर के आगे की जगह धरने के लिए चुनी. चैत्र शुक्ला त्रयोदशी से पूर्णिमा तक दो दिन उन्होंने निराहार रह कर धरना दिया पर तीसरे रोज़ प्रातः काल से उन्होंने प्राणों का उत्सर्ग करने हेतु अपनी अपनी कटारियों से ‘तागा’ अथवा ‘धागा’ करना आरम्भ किया. ‘धागा’ करते समय वे अपनी कटारी के वार अपनी दोनों बगलों में करते, वहीं ‘तागा’ करते समय वे अपनी कटारी से अपने पाँव के अंगूठे के प्रथम संधिस्थल पर प्रहार करते. उसके बाद क्रमशः अपनी देह के दूसरे संधिस्थलों को काटते चले जाते जब तक कि गले में प्रहार करने से उनकी जान नहीं निकल जाए. इसी प्रकार ‘तेलिया’ करने को वे अपने कपडों पर घी डालकर आग लगा लेते. प्राणोत्सर्ग को उद्यत चारण के धरने की ख़बर जब जोधपुर पहुँची तो अपयश से डर कर राजा ने अपने विश्वासपात्र चारण  अखा बारहठ को आऊवा धरना सुलझाने भेजा. अखा बारहठ के साथ राजा का नगारची गोविन्द भी आऊवा आया.
दोनों के आऊवा पहुँचने पर अखा बारहठ को धरणार्थियों को समझाने की ज़रूरत ही नहीं पडी क्योंकि धरणार्थियों ने उससे पूछा, ‘आप किसकी तरफ़ हैं? राजा के साथ हैं कि हमारे साथ? आपका कर्तव्य तो हमारा साथ देना होना चाहिए. नहीं?’ ऐसे सवालों के प्रत्युत्तर में अखा बारहठ ने स्वयं को धरने में सम्मिलित करना उचित समझा. …..यही हाल गोविन्द नगारची का रहा. उसे धरणार्थियों ने यह काम सौंपा कि वह ऊंचे मचान पर बैठ कर सूर्य की प्रथम किरण के फूटने की सूचनानगाड़ा बजा कर देगा, जिससे वे अपना तागा आरम्भ करेंगे. गोविन्द सभी के आग्रह से मचान पर चढ़ तो गया पर यह सोचकर कि मेरे इस प्रकार सूचना करते ही इतने लोग प्राण देंगे. मैं बड़े पाप का भागी बनूँगा. लिहाज़ा उसने नगाड़ा बजाने की जगह स्वयं कटारी से घाव खाया ओर अपनी इहलीला समाप्त की.
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