Monday, December 12, 2011

प्लेटफॉर्म नं चार

भीड़भाड़, शोरगुल, मुसाफिरों की आपाधापी और गाड़ियों की आवाजाही, किसी भी रेल्वे स्टेशन की सामान्य सी बात है, लेकिन इसके साथ एक बात और भी सामान्य है- यहां रहने, पलने और बढ़ने वाले छोटे-छोटे मासूमों का हुजूम। लाखों लोगों की भीड़, पुलिस प्रशासन की तथाकथित मुस्तैदी, ढेरों सरकारी योजनाएं, कानून और गैर सरकारी संस्थाओं के प्रयास इन बच्चों तक आते-आते मानों थम से जाते हैं। रेल्वे प्लेटफॉर्म ही इन बच्चों का घर संसार और पाठशाला हैं।

इनमें से कुछ बच्चे घर-परिवार से रूठकर भटकते हुए यहां पहुंच गए, तो कुछ ऐसे है कि इन्हें खुद भी नहीं पता कि कब और कैसे यहां आ गए। कुछ ने जन्म ही प्लेटफॉर्म पर लिया। कुल मिलाकर अब इन तमाम बच्चों का आसरा है- रेल्वे स्टेशन। स्कूल जाने या अच्छे संस्कार सीखने की उम्र में ये सीखते हैं रोजी-रोटी ती तलाश, चोरी, मारपीट, गाली-गलौज, जेब काटने के गुर और नशे की आदत। इनकी मासूमियत का फायदा उठाते हैं यहां जमे हुए शातिर अपराधी जो इनसे भीख मंगवाने, चोरी करवाने से लेकर नशीले पदार्थों की तस्करी भी करवाते हैं। यहां घूमने वाली लड़कियों की हालत तो और भी बदतर है।

रेल्वे स्टेशन पर रहने वाली लड़कियो की हालत तो और भी दयनीय है। छोटी उम्र में ही ये दैहिक शोषण का शिकार हो जाती है। खेल-खिलौने खेलने की उम्र में मां तक बन जाती है ये लाड़लियां। तेरह साल की चंदा का उसका सौतेला भाई मालगाड़ी के ड्राइवर के सुपुर्द कर गया था जहां लगातार उसका शोषण होता रहा। पंद्रह साल की शाहिदा को तो पता ही नहीं है कि वह कब और कैसे यहां पहुंच गई, होश संभालते ही उसने स्वयं को स्टेशन में पाया। स्टेशन में भीख मांगने वाली रशिदा ने उसका नाम रख दिया शाहिदा। करीब तीन महीने पहले ही उसने एक बच्चे को जन्म दिया था जिसे उसने दो हजार रुपए में एक नि:संतान दंपत्ति को बेच दिया। ढीढता से मुस्कराते हुए वह कहती है कि बच्चे के झमेले में कौन पड़ता, वैसे भी वह यहां रहता तो खराब रास्ते में ही जाता। अब कम से कम वह पढ़-लिखकर अच्छा इंसान हो बनेगा।

नशे का सामान बेचते-बेचते अधिकांश मासूम कब इसकी गिरफ्त में आ जाते है, इस बात का पता उन्हें खुद भी नहीं चलता है। तम्बाखू, गुटका से शुरू हुई यह लत धीरे-धीरे बीड़ी, सिगरेट, गांजे से होती हुई ब्राउन शुगर तक पहुंच जाती है, लेकिन रेल्वे स्टेशन में अधिकांश बच्चे टाइपिंग में इस्तेमाल किए जाने वाले व्हाइटनर और पंचर जोड़ने वाले सॉल्यूशन का नशा अधिक करते है। तेरह साल का रहीम भी इसी काम में माहिर है। एक फेरी के उसे मिलते है, 20 रुपए और थोड़ा सा गांजा, लेकिन गांजे की बजाय वाइटनर का नशा उसे अधिक रास आता है।

 आश्चर्य की बात तो यह है कि पुलिस इस बात की पुष्टि भी नहीं करती, तमाम दावों को खोखला साबित करते है  । रेल्वे पुलिस के  अधिकारी का कहना है कि  हमारे पास अब तक इस बात की कोई शिकायत नहीं आई है। सोचिये और रेल मे बैठ जाइये दिल कठोर करके या यह कह कर की मै अकेला क्या कर सकता हू ?