Monday, October 17, 2011

ढाई अक्षर प्रेम का

 प्रथम श्रेणी के भक्तो की महिमा उनके अथक परिश्रम और अव्यय धेर्य में है और कबीर की महिमा उत्कट साहस में |उन्होंने सफ़ेद कागज़ पर लिखना शरू किया था |वह उस पांडित्य को बेकार समझते थे जो केवल ज्ञान का बोझ ढोना सिखाता है |जो मनुष्य को जड़ बनादेता और भगवान के प्रेम से वंचित करता है |

पढ़ी पढ़ी के पत्थर भया,लिखी लिखी भया जू इंट |
कहे कबीरा प्रेम की ,लगी न एको छिट ||
पोथी पढ़ी पढ़ी जग मुआ ,पंडित भया न कोय |
ढाई अक्षर प्रेम का ,पढ़े सो पंडित होई ||

यह प्रेम ही सुब कुछ है | वेद नहीं ,शास्त्र नहीं ,कुरान नहीं ,जप नहीं ,माला नहीं ,तस्बीह नहीं ,मंदिर नहीं ,मस्जिद नहीं ,अवतार नहीं ,नबी नहीं ,पीर नहीं ,पैगम्बर नहीं ,यह प्रेम समस्त ब्रहामचारो की पहुच के बहुत उपर है |समस्त संस्कारो के प्रतिपाध से कही श्रेष्ठ है |जो कुछ भी इसके रास्ते मे खड़ा होता है वह हेय है |
उन्होंने समस्त व्रतों,उपवासों और तीर्थो को एकसाथ अस्वीकार कर दिया |उन्होंने एक निर्जन निरंजन निर्लेप के प्रति लगन को ही अपना लक्ष्य घोषित किया |इस लगन या प्रेम का साधन यह प्रेम ही है और कोई भी मध्यवर्ती साधन उन्होंने स्वीकार नहीं किया |

प्रेम ही साधन है, प्रेम ही साध्य -व्रत भी नहीं ,मुहर्रम भी नहीं ,पूजा भी नहीं ,नमाज भी नहीं ,हज भी नहीं तीर्थ भी नहीं, देव नहीं ,द्विज एकादशी नहीं, दीवाली नहीं सब गलत है | कबीर कहते है भला हिन्दुओ के भगवान तो मंदिर में रहते है और मुसलमानों के खुदा मस्जिद में ,पर जहा मंदिर न हो और मस्जिद भी न हो वहा किसकी ठकुराई काम कर रही है ?कबीर ने उन सब लोगो को अस्वीकार कर दिया जो आख मूँद कर चलना पसंद करते है |
कबीर कहते है :ओ फकीर ,तू अपनी राह चल न मंदिर जा न मस्जिद जा काहे टंटे में पड़ता है |तेरे राम ,रहीम ,श्याम करीम में कोई भेद नहीं है सुब एक है ......