Tuesday, October 25, 2011

मौक़ा

इतिहास एक मौक़ा देता है वह कुछ देर ठहरकर देखता है कि उस मौक़े का इस्तेमाल किस तरह किया जा रहा है| इसके बाद वह निष्ठुरता के साथ फ़ैसला करता है इन निर्मम फ़ैसले में कभी ये होता है कि एक दुर्बल सा व्यक्ति शिखर पर जा खड़ा होता है कभी एक सक्षम व्यक्ति गर्त में चला जाता है| और कभी शिखर पर पहुँचता सा दिखता व्यक्ति भी मौक़ा गँवाकर निचली पायदान पर जा खड़ा होता है|
महात्मा गांधी से लेकर बाबा साहब अंबेडकर तक कई उदाहरण हैं जिन्होंने मौक़े को पहचाना और इतिहास रचा| लेकिन ऐसे भी बहुत से उदाहरण हैं जो इसके ठीक विपरीत हैंअपने समकालीन इतिहास में ऐसे बहुत से उदाहरण हैं जो चेतावनी देते हैं कि मौक़ा गँवाना कितना ख़तरनाक साबित हो सकता है|


विश्वनाथ प्रताप सिंह के पास एक मौक़ा था जब वो इतिहास बना सकते थे| चाहे राजनीतिक मजबूरी में सही लेकिन मंडल आयोग की सिफ़ारिशों को लागू करके उन्होंने एक पहल तो की| लेकिन भ्रष्टाचार के जिस मुद्दे पर वो प्रधानमंत्री बने थे, उस पर उन्होंने कुछ नहीं किया|


अटल बिहारी वाजपेयी ने अगर गुजरात दंगों के समय नरेंद्र मोदी को राजधर्म का पालन करने की हिदायत देने भर को ही अपना राजधर्म न माना होता तो वे देश के सांप्रदायिक सद्भाव के इतिहास में एक नया पन्ना जोड़ सकते थे| वे चूक गए |एक मौक़ा ज्योति बसु के पास था कि वे देश के प्रधानमंत्री बनते| लेकिन उनकी पार्टी ने इस अवसर को गँवा दिया| बाद में उन्होंने माना कि ये एक 'ऐतिहासिक भूल' थी|


इतिहास ने एक मौक़ा सोनिया गांधी को भी दिया| प्रधानमंत्री का पद स्वीकार न करने के बाद दुनिया का एक बड़ा हिस्सा उन्हें 'संत' और 'त्याग की मूर्ति' की उपाधि दे रहा था| लेकिन यूपीए के सात वर्षों के कार्यकाल में वे उम्मीदों के आगे पराजित सी खड़ी दिख रही हैं|
मनमोहन सिंह के पास भी देश के इतिहास में अपने पन्ने जोड़ने का बड़ा अवसर था| एक नौकरशाह से प्रधानमंत्री बनने के बाद वे चाहते तो अपनी साफ़ सुथरी छवि और निर्विरोध नेतृत्व को आधार बनाकर देश को एक नई दिशा दे सकते थे| लेकिन उन्होंने किया इसका बिल्कुल उल्टा. आज की स्थिति तो ये है कि वे इतिहास के पन्नों में हाशिए पर खड़े कर दिए गए हैं|


सबसे ताज़ा अवसर अन्ना हज़ारे के पास है| एक बार फिर देश में एक लहर उठी है इस बात पर विवाद हो सकता है कि ये अवसर उन्होंने हासिल किया है या उन्हें उपलब्ध करवाया है, लेकिन अवसर तो अवसर है| कम से कम इस समय तो नहीं दिखता कि अन्ना हज़ारे के पास ऐसी ठोस योजनाएँ हैं जिससे कि वे इन लहरों पर सवार होकर दूर तक यात्रा कर सकें| अगर वे ये मौक़ा चूक गए तो एक बार फिर इसे लोग जयप्रकाश नारायण की 'संपूर्ण क्रांति' की तरह याद करेंगे|
 आकर गुज़र जाने वाले सैलाब की तरह!!!