Saturday, December 17, 2011

किसान

किसान जो मेहनत का पर्याय है को आज उस देश जहा आबादी मे बहुतायत उसी की है बेसहारा लाचार  और मजबूरी का जीवन जीना पड रहा है |पंजाब जो कृषि बहुल सरसब्ज़  इलाका है वहा आलू सडको पर बिखरे है तो महाराष्ट्र मे हर साल दो तीन कपास कृषको की आत्महत्या |पूरे देश मे किसान अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहा है हरित क्रांति के झंडाबरदार राज्य हरियाणा और पंजाब के किसान भी हताश हैं। आंध्रप्रदेश में किसानों की दयनीय स्थिति किसी से छिपी नहीं है। आत्महत्या की काली साया बांदा, हमीरपुर तक पहुंच गई है। उत्तरप्रदेश, बिहार के किसानों में आत्महत्या की प्रवृत्ति इसलिए जोर नहीं पकड़ रही है क्योंकि, वहां के छोटे-बड़े सभी किसानों ने शहरों में जाकर वैकल्पिक आय के साधन ढूंढ लिए हैं। लेकिन जहां भी वैकल्पिक आय नहीं है, वहां किसान आत्महत्या के कगार पर हैं।कभी सोने की चिड़िया कही जाने वाली भारत की सामर्थ्य और समृद्धि का आधार स्तम्भ यहां की कृषि व्यवस्था थी। कृषि, गौपालन और वाणिज्य के त्रिकोण के कारण भारत में कभी दूध-दही की नदियां बहा करती थीं।और आज ?


वर्षों से विपरीत परिस्थितियों को झेल रहे किसान जहां एक ओर थक रहे हैं, वहीं उनके लिए कठिनाइयां और बढ़ती जा रही हैं।सन १९७५ मे मेरे पिताजी ने पढाई के पश्च्यात गाव का रुख किया |टमाटर की फसल करी मेहनत से अच्छी पैदा के बावजूद कीमत व् बाज़ार न मिलने से कई ट्रोली टमाटर सड़क किनारे फैक कर घर आना पड़ा |फिर तीन साल अच्छी बरसतो का इन्तजार किया और कपास की खेती करी बीज चित्तोड़गढ़ से लिया और किताबो व् चरस, आठ जोड़ी बैलो और दस कामगारों की मदद से दिन रात मेहनत करी ...पत्तो के दोनों मे बीज उगा कपास की नर्सरी तैयार की और रस्सी से निशानदेही कर चार फिट की दूरी पर गड्ढे खोद  के कपास उगाया | जब पौधे मे दो दो पत्ती उग आई तो कीड़ा लग गया |दावा हेतु पिताजी जब भीलवाडा के डिप्टी डिरेक्टर कृषि से मिले तो उनका जवाब था हमें जानकारी नहीं है जिले मे किसीने यह बीज नहीं बोया और मैंने तो देखा ही आज है |तब मेरे किसान पिताजी चित्तोडगढ पहुचे और दवा के लिए दुकानदार से मिले उसने बम्बई से मंगवाई |कई परेशानियों और कड़ी मेहनत के बाद बहुत शानदार कपास आया |जब उसे बेचने केकड़ी मंडी पहुचे तो व्यापारी उस कपास को देख कर दंग रह गए पर यह कहते हुए खरीदने से मना कर दिया की इसका जोड़ का कपास नहीं है हम नहीं लेसकते |हिम्मत कर के पिताजी ट्रेक्टर में कपास के साथ  विजयनगर मंडी पहुचे और बहुत कम मूल्य पर बेच कर घर पहुचे |आज थक हार के उन्होंने गाव छोड़ कर शहर का रुख कर लिया पर मन आज भी उन्ही खेतो कुओ मे अटका है |


गाव मे जब किसान का बैल मर जाता था  तो लोग मातमपुर्सी के लिए जाते थे |बैल कमाऊ पूत की तरह होता था और आज भी कई जगह किसान लाचार और बेबस है पर थका नहीं मेहनत मे किसान का कोई सानी नहीं कभी जमीन से तो कभी सरकार से तो कभी व्यापारी से और अक्सर भगवान् से परेशान होने के बाद भी फिर खड़ा हो अगली फसल की तयारी मे जुट जाता है |


किसान पूरे देश में अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं |विगत दस वर्षों से कृषि उपज लगभग स्थिर बने हुए हैं। 65 प्रतिशत किसानों का सकल घरेलू उत्पाद में  केवल 24 प्रतिशत हिस्सा रह गया है। उद्योग क्षेत्र में तो कर्जमाफी के नए-नए उपचार हुए पर कृषि के बारे में बहाने बनाए गए। कोढ़ में खाज की स्थिति तब हो गई जब विश्व व्यापार संगठन की शह पर सरकारों ने अपनी जिम्मेदारी से मुंह मोड़ लिया। आज विदेशी शोषकों की एक नई फौज खड़ी हो गई है। गावों का खेती-किसानी से नाता टूट रहा है। जमीन, जल, जंगल, जगत, जानवर बेजान होते जा रहे हैं।