Tuesday, January 3, 2012

विशेषाधिकार

मैं न तो अन्ना हज़ारे का अंध समर्थक रहा हूँ और न ही लोकपाल के मामले में सरकार के फ़ैसलों को हज़म कर पाया हूँ.अब जबकि संसद का शीतकालीन सत्र समाप्त किया जा चुका है मैं कुछ हद तक टीम अन्ना की ज़िद को उनके नज़रिए से समझ पा रहा हूँ.विपक्ष रात भर बैठने की चुनौती देता रहा और सरकार ने दंभ भरे स्वर में कहा कि सत्र को लेकर फ़ैसला सरकार का 'विशेषाधिकार' है.यह अराजकता और तानाशाही दोनों का ही मिश्रित रूप है, लोकतंत्र तो कदापि नहीं.


यह विडम्बना है कि राजनीति में वे ही लोग हैं जो कान्तिहीन, श्रीहीन और प्रभाहीन हैं. इसलिए इनका कोई प्रभाव होगा इसकी कोई सम्भावना ही नही है. इस तथ्य को ये लोग भलीभाँति जानते हैं इसलिए आज नोट फॉर वोट के लिए किसी दलाल टाईप व्यक्ति का इस्तेमाल करते हैं तो कल उसे जेल भिजवा देते हैं.यह किसी से छिपा नहीं है कि आज बहुमत कैसे हासिल किया जाता है?


एक तयशुदा नीति के तहत सदन में हंगामा करवाया गया और लोकपाल विधेयक एक बार फिर से लटक गया. टीम अण्णा के लोगों ने रामलीला मैदान में जो टिप्पणियाँ कीं उनके लिए ओमपुरी और किरण बेदी को विशेषाधिकार नोटिस थमा दिया गया. अब सदन के भीतर ही इन माननीयों ने किस क़दर सदन की गरिमा भंग की ये पूरे देश ने देखा. तो क्या सदन में छीना झपटी और लोकपाल विधेयक की प्रतियाँ फाड़ना ही इनके विशेषाधिकार हैं? अण्णा के आंदोलन ने अभी सिर्फ़ विराम लिया है, ख़त्म नहीं हुआ. एक बार फिर देश में अण्णा की आँधी ज़रूर चलेगी. क्योंकि अब जो हुआ है उसकी आशंका अण्णा को पहले से ही थी. इन नेताओं को देश जवाब देगा.