Sunday, January 29, 2012

विरोध

भारत की युवा पीढ़ी ने विरोध को देखा, सुना और समझा विरोध की अवधारणा कोई नई नहीं है लेकिन आवाज़ उठाने की हिम्मत में एक नयापन ज़रुर महसूस हुआ है.  वैश्वीकरण के इस दौर में विद्रोही और विरोध के मायने नकारात्मक बना दिए गए हैं लेकिन अगर दुनिया अपने इतिहास पर गौर करे तो विरोध जितनी सकारात्मक सोच कोई और नहीं है |


हर नया विचार पुराने विचार के विरोध पर ही खड़ा होता है. बदलाव विरोध से ही शुरु होता है चाहे वो बदलाव वैचारिक हो, सामाजिक हो या राजनीतिक|


अगर अर्जुन ने अपने धर्म के विरोध में शस्त्र त्यागने की कोशिश न की होती तो श्रीकृष्ण गीता का पाठ शायद ही पढ़ाते. बौद्ध धर्म की अवधारणा हिंदू धर्म की कुरीतियों के ख़िलाफ़ ही जन्मी होगी और यही बात जैन धर्म के बारे में भी कही जा सकती है कबीर का 'निर्गुण' विरोध का ही प्रतीक है कुरीतियों के ख़िलाफ़ |


यही कारण है कि विरोध को हमेशा महत्व दिया जाता रहा है. हां क्षणिक लाभ के लिए लोग भले ही विरोध न करने का मंत्र देते रहे हों लेकिन हम सभी जानते हैं कि सही मुद्दे पर विरोध कभी बेकार नहीं होते|


बिना विरोध के न तो कोई सुधार हुआ है और न होगा विरोध एक मौलिक हथियार|इसलिए विरोध जारी रहे बस मुद्दे ईमानदार हों.