Saturday, February 25, 2012

योजनाओं की सफलता

खाद्य सुरक्षा कानून लगभग 75 प्रतिशत ग्रामीणों और 50 प्रतिशत शहरवासियों को सात किलो खाद्यान्न प्रति माह तीन रुपए प्रति किलो या कम पर उपलब्ध कराया जाएगा।इसका विरोध सिर्फ इस तर्क से किया जा रहा है कि इससे सरकार की वित्तीय स्थिति पर असहनीय बोझ पड़ेगा।खाद्यान्न पर सरकार द्वारा लगभग 60,000 करोड़ रुपये प्रतिवर्ष खर्च किए जा रहे हैं। इस कानून के लागू होने पर खर्च बढ़कर लगभग 125,000 करोड़ रुपये हो जाएगा।


विरोध अनुचित है। लगभग दो करोड़ सरकारी कर्मियों को 500,000 करोड़ रुपये का प्रतिवर्ष वेतन दिया जा रहा है। कर्मी का औसत वेतन 2,50,000 रुपये प्रतिवर्ष है। इसके सामने गरीब परिवारों को दी जाने वाली मात्र 1,500 रुपये प्रतिवर्ष खाद्यान्न सब्सिडी को असहनीय क्यों बताया जा रहा है?
विश्व बैंक द्वारा कराए गए अध्ययन में पाया गया कि केवल 41 प्रतिशत खाद्यान्न ही लाभार्थियों तक पहुंचा है। मान लीजिए सरकार ने 10 किलो गेहूं 15 रुपये प्रति किलो में खरीदा और पांच रुपये प्रति किलो फूड कार्पोरेशन का खर्च हुआ। सरकार को कुल 200 रुपये खर्च करने पड़े। इस 10 किलो में 30 प्रतिशत यानि तीन किलो गरीब को मिला। बाजार से खरीदने पर गरीब को 45 रुपये देने होते, राशन दुकान से उसे यह नौ रुपये में उपलब्ध हो गया। यानी 36 रुपये की राहत गरीब तक पहुंचाने में सरकार को 200 रुपये खर्च करने पड़े। 


इस कानून में कुछ खामियां जरूर हैं, जिन्हें दूर किया जाना चाहिए। पहली समस्या लाभार्थी के चयन की है।दूसरी समस्या नगद के दुरुपयोग की है।रोजगार गारंटी योजना भी नगद ट्रांसफर की ही है। इसमें काम का दिखावा किया जाता है। जननी सुरक्षा योजना में गर्भवती महिलाओं को अस्पताल में प्रसव पर और धनलक्ष्मी योजना में जन्म के पंजीकरण, टीकाकरण और बच्चे के स्कूल में जाने पर नगद पुरस्कार दिया जा रहा है। इन योजनाओं की सफलता के परिणाम उपलब्ध हैं। यदि गरीब द्वारा नगद का दुरुपयोग होता तो इन योजनाओं के दुष्परिणाम सामने आए होते।