Friday, December 16, 2011

स्वाभिमान

एक बार मेवाड़ राजदरबार से एक चारण योद्धा  अकबर के दरबार में पहुंचा। उसके सिर पर पगड़ी थी। अकबर का अभिवादन करने से पहले उसने अपनी पगड़ी उतार दी। पगड़ी उतार कर अभिवादन करने से अकबर को क्रोध आ गया लेकिन अपने को नियंत्रित करते हुए उन्होंने कहा, ' चारण होने के कारण तुम्हें राजदरबार के नियम-कायदे की समझ तो होगी ही। तुम्हें पता होगा कि एक चारण को नंगे सिर किसी बादशाह का अभिवादन नहीं करना चाहिए। फिर तुमने ऐसा क्यों किया?' 

इस पर चारण सरदार ने जवाब दिया , 'जहांपनाह, गुस्ताखी माफ हो। मुझे दरबार के इस नियम का ज्ञान है कि एक चारण को राजदरबार में बादशाह का अभिवादन करते समय पगड़ी नहीं उतारनी चाहिए। लेकिन मेरे सिर पर जो पगड़ी है, वह कोई कपड़े की मामूली पगड़ी नहीं है।' अकबर ने पूछा 'क्या इसमें हीरे-जवाहरात जड़े हैं कि पगड़ी झुकाते ही वे छिटक कर गुम हो जाएंगे।' 

चारण  ने कहा, 'हुजूर, इस पगड़ी की कीमत हीरे मोतियों से मत आंकिए। यह अमूल्य है।' अकबर ने क्रोध में कहा, 'साफ साफ कहो, तुमने यह गुस्ताखी क्यों की।' चारण योद्धा ने कहा, 'एक बार मेवाड़ के महाराणा प्रताप ने घास की रोटी खाने पर मजबूर होते हुए भी प्रसन्न होकर मुझे यह पगड़ी भेंट की थी और कहा था कि इसकी लाज रखना। जब जंगलों की खाक छानने और घास की रोटियां खाने के बावजूद महाराणा आप के सामने कभी नतमस्तक नहीं हुए तो उनके द्वारा दी गई पगड़ी को आप के सामने झुकाने का मुझे कोई अधिकार नहीं है। यदि मैं ऐसा करता तो राणा के स्वाभिमान को चोट पहुंचती। एक चारण अपनी जान तो दे सकता है लेकिन ऐसा कुछ नहीं कर सकता जिससे कि उसके स्वामी के स्वाभिमान को ठेस पहुंचे।' चारण की बात सुन कर अकबर ने कहा, 'मैं तुम्हारे स्वाभिमान को देख कर बहुत खुश हूं।'