Monday, July 23, 2012

बदरा

वो आएगी टिप टिप करती मेरे द्वारे 
मेरा ही नहीं पडोसी का भी दुःख हरती
मै जोता हु बाट उसकी ताकता हु राह उसकी 
लगा टकटकी निहारता हु बनावट उसकी 
वो काले लगे सुहावने वो आते लगे सुहावने ||
                                                                  हर्ष 

Sunday, July 22, 2012

एक बोरी धान

आज फिर चलते चलते राह पर  मेरे कदम थम से गए
वो बाग़ वो खेत जो फटे है होट की तरह प्यास से 
 उस मेहनती किसान की सासे फूल चुकी है 
फिर भी आस भरे नैनो से निहारता है जब वो हर बदली 
तब दिल मेरा रो उठता है उन रिश्वत खोरो पे जो उस
किसान के बेटे को अंग्रेजी स्कूल की कक्षा में न बैठने देते है बिना एक बोरी धान के ।।
                                                                                                                             हर्ष 

Sunday, July 15, 2012

संवेदना

अंग्रेजी बोलना, आधुनिक फैशन के कपड़े पहनना,  ‘बरिस्ता’ या ‘सीसीडी’ में कॉफी पीना आज के युवाओं के मुताबिक ‘स्टेटस सिंबल’ है। आप जितनी फर्राटे से अंग्रेजी बोलते हैं और जितने कम कपड़े पहनते हैं उतने ही ‘अपग्रेड’ हैं। वरना गंवार या देहाती हैं! आप सभ्य समाज में रहने या उसके साथ खड़े होने के काबिल नहीं हैं


हर गांव और कस्बे में यही मानसिकता हावी देखी जा सकती है। आज की युवा पीढ़ी के लिए हम सब यही सोचते हैं। उनके लिए यह मान लिया है कि वे बस इसी फैशन और दिखावे में व्यस्त रहते हैं। भावना के स्तर पर खोखले हैं। कुछ हद तक यह बात सही हो सकती है।


डिब्बे में लड़कियां किसी कॉलेज की विद्यार्थी लग रही थीं। वे उनके लिए अपनी सीट छोड़ कर खड़ी हो गर्इं, ताकि वे बैठ सकें। लेकिन लड़कियों के सीट छोड़ते ही चालीस-पचास साल की हृष्ट-पुष्ट दो महिलाओं ने उस पर कब्जा जमा लिया और पसर कर बैठ गर्इं। विरोध करने पर रोषमिश्रित दया भाव दिखाते हुए अपनी जगह से थोड़ा हिल भर गर्इं, पर उठीं नहीं।


शांति से प्लेटफार्म पर लगी लाइन में सबसे पीछे खड़ी थी। लेकिन जैसे ही मेट्रो आई, वह दौड़ कर गेट के सामने जाकर खड़ी हो गई। मेट्रो का दरवाजा खुलते ही उतरने वाले लोगों को धक्का देते हुए वह दौड़ कर किनारे की सीट पर बैठ गई। यह कोई नई बात नहीं है। 

मेट्रो में अक्सर यह देखने को मिल जाता है कि पांच मिनट के सफर के लिए भी लोग सीट की मारामारी करते हैं। कपड़े और बोलचाल से सभ्य दिखते हैं, पर उनकी असलियत यहां दिखाई दे जाती है। लेकिन यहां सबसे दुखद बात यह थी  कि उस लड़की ने सीट पर कब्जा करने की जल्दी में यह भी नहीं देखा कि जिन्हें वह धक्का देकर आगे निकल गई, वे लगभग साठ-पैंसठ साल की एक वृद्ध महिला थीं।


संतोष इस बात का है कि जिस युवा पीढ़ी को हम हमेशा गलत ठहराते हैं, उस भीड़ में कई अच्छे और संवेदनशील युवा भी हैं। दुनिया उतनी बुरी भी नहीं जितना हम सोचते और देखते हैं।