Wednesday, May 16, 2012

साठ के ठाट

सुना हमारी संसद को साठ साल हो चुके है । एक  भव्य जश्न होरहा है ..........आत्म मंथन  ।ना जाने  क्यों वो इसे अपनी तरह इसे बूढा मान  कर खुश है ।तेरह मई को यह दिन  आया आत्म मन्थन  का ढ़ोंग  हुआ,  ढेर सारी नाकामियाबियों और मुट्ठी भर सफ़लताओ  जिससे जनता दुखि  है का.. मंथन  ।इतने वर्ष के सफर में एक तरफ देश में लोकतंत्र मजबूत हुआ है तो दूसरी तरफ उसके सभी उपकरण अपने अंर्तकलह से कमजोर हुए हैं। तब कोई मंत्री, सदस्य यदि बोल रहा होता था, तो कोई भी उसे डिस्टर्ब नहीं करता था। सभी ध्यान से उसकी बात सुनते थे। उसके बाद अपनी बात कहते थे। बड़ा नेता हो या छोटा, सभी एक-दूसरे को सम्मान देते थे। और आज  संविधान निर्माता डॉक्टर भीमराव अंबेडकर की एक बात ज़हन में गूँज रही है कि कोई भी संविधान कितना भी अच्छा क्यों न हो अगर उस पर काम करने वाले बुरे हुए तो उसे वे बुरा बना देंगे।

अराजकता की स्थिति ,भ्रस्टाचार  ,अशिक्षा ,ग़ैरबराबारी ,बेरोजगारी और नाइंसाफी का बोलबाला है सियासत में आई गिरावट ने संसद को उसके बुनियादी काम से ही भटका दिया है। बहस की जगह विवादों ने ले ली है और सरोकार स्वार्थ बन चुके हैं। इतना ही नहीं इस संसद ने लोकतंत्र को कलंकित करने वाला वो लम्हा भी देखा जब सदन के अंदर ही नोटो की गड्डियां लहराई गईं। लालू यादव ने अप्रत्यक्ष रूप से अन्ना पर हमला बोला और जन लोकपाल बिल की कड़ी आलोचना की. मायावती ने प्रमोसन में भी रिजर्वेसन की सिफारिश की. शरद यादव ने जरुर कुछ कटु सत्यों को प्रभावशाली ढंग से पेश किया.
हाँ, साठ साल देश के संसदीय इतिहास में मील का पत्थर जरूर है पर आज इन्ही लोगों (सांसदों) ने इसे भारत के विशाल जनगण के साथ संसद को एक धोखे में तब्दील कर दिया है.
भारतीय संसद अब एक अखाड़ा बन चुकी है जहां राजनैतिक दल कुश्ती लड़ते हैं याने वाणी से या फिर कभी कभी मुक्का मुक्की और मायिक, पेपरवेट आदि फेंक कर. समारोह में स्वयं प्रधानमंत्री और वित्त मंत्री ने संसदीय कार्रवाई को जब चाहें ठप करने कि मनोवृत्ति का जिक्र किया है. अगर आंकड़ों पर गौर करें तो पता चलेगा कि संसद का कितना समय ऐसी रुकावटों में बर्बाद हुआ जिसके परिणामस्वरूप महत्वपूर्ण बिलों और कानूनों पर विचार विमर्श नहीं हो सका. आज भी बहुत से महत्वपूर्ण बिल, विधि, विधान आदि लम्बे अरसे से लंबित  हैं. हमारे सांसद अच्छा ख़ासा दैनिक भत्ता पाते हैं, फोन, रेल, हवाई यात्रा आदि कि मुफ्त सुविधाएँ भी हैं. अपनी पगार की बढ़ोतरी भी खुद ही पास कर लेते हैं और इस मुद्दे पर सारे एक होते हैं क्यों कि मलाई सभी को खानी है

हमारे इन कुत्सित नेताओं के लिए 60 साल पहले बने एक कार्टून का छापना ही बड़ा मुद्दा बन जाता है और मानसिक रूप से नपुंसक सरकारी मंत्री उसे किताब से हटाने कि घोषणा कर देता है. कहाँ है आपका “फ्रीडम आफ स्पीच”. ऐसी बातों को उठाने वाले हमारे वे ही सांसद हैं जिन्होंने संविधान कि रक्षा करने का वायदा किया है. इसके अलावा इन में से कुछ लोग प्रश्न पूछने के लिए पैसे मांगते हैं.

हमें सोचना होगा कि इधर कुछ समय से हम कहीं एक चिड़चिड़े और असहिष्णु राष्ट्र में तो नहीं बदलते जा रहे हैं।अपने लोकतंत्र के मानसिक स्वास्थ्य को लेकर शक होने लगा है। पारंपरिक भारतीय बुद्धि साठ साल की उम्र को सनक के साथ जोड़ती आई है। यह मामला भी कहीं वैसा ही तो नहीं है?